सडसठ पार कर चुका हूँ, सठियाये हुए सात साल गुज़र चुके हैं, इन सडसठ सालों में हर दिन यही सुनता रहा, कोई रथ मेरे घर के पास से गुजरेगा, जिसमे बैठा कोई विकास पुरुष, मेरे और मुझ जैसे औरों की ज़िन्दगी में ख़ुशी के रंग भर देगा I रथ तो कई आये-गए, पर ख़ुशी कभी नीचे नहीं उतरी, हाँ, लोग कहते हैं की विकास हुआ है, लम्बी-चौड़ी सड़कें बनी हैं, सड़कें, जो जहाँ जाती हैं, वहां की सम्पदा लेकर दूर कहीं चली जाती हैं, फिर, उस सम्पदा की तलाश में वहां के लोग उन्ही सड़कों के रास्ते, घर से बहुत दूर चले जाते हैं, एक बार जो गए, तो शायद ही कभी लौटे, जो लौटे वो परदेसी बन के लौटे I कहते हैं, विकास हुआ है, फसल उगलने वाली ज़मीन पर अब चारदीवारीयाँ खिंच गयी हैं, जिस ज़मीन से फूटती थीं कोंपलें, उसमे से आजकल रातों रात खम्बे उग आते हैं, खम्बे जिनपर काली चादर बिछाकर गाड़ियां, छकड़े और रेलें दौड़ती हैं, वो गाड़ियां जो मुझे और मेरे जैसे को अपने देस से बाहर ले जाती हैं, वही गाड़ियाँ जो सात समुन्दर पार से आया, टमाटर, प्याज, धान और गेहूं मंडी तक पहुंचाती हैं I जिस ज़मीन पे टिके ...
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