सठियाया गणतंत्र
सडसठ पार कर चुका हूँ,
सठियाये हुए सात साल
गुज़र चुके हैं,
इन सडसठ सालों में
हर दिन यही सुनता रहा,
कोई रथ मेरे घर के पास से गुजरेगा,
जिसमे बैठा कोई
विकास पुरुष,
मेरे और मुझ जैसे
औरों की ज़िन्दगी में ख़ुशी के रंग भर देगा I
रथ तो कई आये-गए, पर
ख़ुशी कभी नीचे नहीं उतरी,
हाँ, लोग कहते हैं
की विकास हुआ है,
लम्बी-चौड़ी सड़कें
बनी हैं,
सड़कें, जो जहाँ जाती
हैं, वहां की सम्पदा लेकर दूर कहीं चली जाती हैं,
फिर, उस सम्पदा की
तलाश में वहां के लोग उन्ही सड़कों के रास्ते,
घर से बहुत दूर चले
जाते हैं,
एक बार जो गए, तो
शायद ही कभी लौटे,
जो लौटे वो परदेसी
बन के लौटे I
कहते हैं, विकास हुआ
है,
फसल उगलने वाली ज़मीन
पर अब चारदीवारीयाँ खिंच गयी हैं,
जिस ज़मीन से फूटती
थीं कोंपलें,
उसमे से आजकल रातों
रात खम्बे उग आते हैं,
खम्बे जिनपर काली
चादर बिछाकर गाड़ियां, छकड़े और रेलें दौड़ती हैं,
वो गाड़ियां जो मुझे
और मेरे जैसे को अपने देस से बाहर ले जाती हैं,
वही गाड़ियाँ जो सात
समुन्दर पार से आया,
टमाटर, प्याज, धान
और गेहूं मंडी तक पहुंचाती हैं I
जिस ज़मीन पे टिके
रहते थे सपने,
उसमे से आजकल हरे-भरे
दरख़्त नहीं,
रंग-रंगीले, लाल,
हरे और पीले-नीले,
प्लास्टिक के पाइप
निकल आते हैं,
कहते हैं, ये पलक
झपकते दूर तलक सन्देश पहुंचाते हैं,
किसका सन्देश, कैसा
सन्देश?
मेरी ख़ुशी किस चीज़
में है, किसकी तलाश में मेरा मन,
ये बात तो किसी विकास
पुरुष तक कभी न पहुंची I
सुनते हैं, विकास
हुआ है,
घर के बाजू में बहती
थी जो नदी,
पानी था जिसका जीवन,
उसका रंग मटमैला लाल
सा हो चला है,
कोई कहता है खून है
किसी का,
कोई कहता ये विकास
का रंग है I
एक दिन यूँ ही ख्याल
आया,
खाली बैठे बैठे ऊबने
से अच्छा है,
बाजू वाली नदी की
निराशा में डूबने से अच्छा है,
चलो बाईपास के
जरिये, घूमने निकल जाते हैं,
जहाँ कहीं भी हो,
ख़ुशी को पकड़ लाते हैं,
घूमा किया चहुँ ओर
कभी इस छोर, कभी उस
ओर,
ग्राम-नगर,
सुबह-दोपहर,
हाँ, विकास हुआ है,
लोग पहले से कहीं
ज्यादा लोभी हो गए हैं,
खाली पेट और भरी जेब
के बीच की खाई और चौड़ी हो गयी है,
आमदनी और खर्च के
बीच का फासला और लम्बा हो चला है,
कोल्हू के बैलों की
तरह ख़ुशी की फिराक में,
गोल गोल घूमते हुए
लोग,
बस जिंदा ही रहने को
हैं जिंदा,
व्यस्तता इतनी की
औरों से मेल जोल हो नहीं पाता,
समय मिल भी जाए तो
बाज़ार है बुलाता,
दिलों की दूरियाँ
काली सड़कों की तरह चौड़ी और लम्बी हो चली हैं,
चलो इतना तो समझ आया,
कि
कोई चीज़ जब बढती है,
तो उसे विकास कहते हैं,
यहाँ तो बहुत कुछ बढ़
रहा है,
यानी विकास का नशा बस
चढ़ ही चढ़ रहा है,
जो हो गलत मेरी समझ,
तो माफ़ कर देना,
सडसठ का हो चुका हूँ,
सठियाये हुए मुझे सात
साल गुज़र चुके हैं...
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